भजन संहिता 36

1 दुष्ट जन का अपराध उसके हृदय के भीतर कहता है;

2 वह अपने अधर्म के प्रगट होने

3 उसकी बातें अनर्थ और छल की हैं;

4 वह अपने बिछौने पर पड़े-पड़े

5 हे यहोवा, तेरी करुणा स्वर्ग में है,

6 तेरा धर्म ऊँचे पर्वतों के समान है,

7 हे परमेश्‍वर, तेरी करुणा कैसी अनमोल है!

8 वे तेरे भवन के भोजन की

9 क्योंकि जीवन का सोता तेरे ही पास है;

10 अपने जाननेवालों पर करुणा करता रह,

11 अहंकारी मुझ पर लात उठाने न पाए,

12 वहाँ अनर्थकारी गिर पड़े हैं;

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कुकर्मियों के कारण मत कुढ़,

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